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Saturday, January 26, 2008

Life & Nostalgia





This video reminds me about my very old poem which i wrote while travelling in a charted bus.

सूरज आया, हुई शुरुआत एक खूबसूरत दिन कि।

मानो निकल पड़ी हो ज़िंदगी तलाश में ज़िंदगी कि।

आंखों में उम्मीद कि चमक पर चेहरे पे नाउम्मीदी का खौफ

होठों पे मुस्कुराहट तो मानो एक स्वप्ना ही रह गयी है।

कहाँ है, कहाँ है वह आंसू निकलने से पहले,

चुपके से गुदगुदा देने वाली ज़िंदगी।


वह आंखें

अनगिनत ख़्वाबों को पिरोती वह आंखें।
कुछ अनसुलझे सवालों के जवाब खोजती वह आंखें।
ना जाने ज़िंदगी से क्या उम्मीद लगाए बैठी हैं वह आंखें।
धड़कन थम जाये एक नज़र भर के जो देख लें वह आंखें।
मगर खामोशी कि रजाई ओढे हुए हैं वह आंखें।
अब टोह इंतज़ार है कि कब चुप्पी खोलेंगी वह आंखें।