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Saturday, May 17, 2008

मुंबई और मैं

कहते हैं की मुम्बई शहर में लोग नहीं बल्कि सपने दोड़ते हैं...लम्बी गाड़ी में जाने का स्वप्न, गाड़ी होने के बाद भी दफ्तर टाइम पे पहुँचने का स्वप्न, साफ हवा पाने का स्वप्न, और तोह और, स्वप्न देखने की आज़ादी का भी स्वप्न घूमता दिखता है मुम्बई की सड़कों पे, इन्ही सपनों को एक स्टेशन से दूसरे और दूसरे से तीसरे ले जाती लोकल ट्रेनकी दास्ताँ काफ़ी दिलचस्प है।

कुछ तोह बात है जो ज़िन्दगी लुका छिपी खेलती हुई आम दिखाई पड़ती है मुंबई में। इस निरंतर दोड़ते महानगर की अथाह भीड़ में अपने अस्तित्व को पा जाना किसी भी चमत्कार से कम नहीं । टूटने के बाद जुड़ना , गिरने के बाद उठ खड़े होने और आगे बढ़ना, शायद मुंबई से बेहतर कोई महानगर नहीं सिखा सकता। और मुंबई के लिए मैं कभी भी अजनबी नहीं था। उसने मुझे हर बार एक पुराने दोस्त की तरह अपने घर में पनाह दी। मेरे जीवन में इतने बदलाव के बाद भी मुंबई के लिए मैं कभी नहीं बदला।
मैं तब भी एक राहगीर था और अब भी।

शुक्रिया मुंबई! ज़िन्दगी के किसी मोड़ पे फ़िर मिलेंगे और ढेर साड़ी गुफ्तगू करेंगे तुम्हारे साथ।



2 comments:

Saurav Chakraborty said...

Keep it up...I seriously think you shld spend more time and write more regularly!

Piyush Aggarwal said...

thanks a ton saurav...ur words always inspire me to write more.