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Friday, November 28, 2008

एकमात्र सच

कैसे भूल जाऊं ?
और क्यूँ ?
मानो की जीवन का कोई मोल ही नहीं रहा।
दम घुट रहा है यहाँ पे।
अरे, रोको इन्हे ! रोको!
कहाँ जा रहे हैं यह लोग?
मुझे बहुत डर लग रहा है।
फ़िर से कई नन्हे चेहरों की हँसी गुम जाएगी।
ठहरो !
लगता है कहीं किसी के रोने की आवाज़ आ रही है।
सियासत , लोकतंत्र, धर्मं
यह शब्द अब दकियानूसी और बेमानी लगते हैं।
आतंक के साए में धर्मं या लोकतंत्र नहीं पनप सकता।
कुछ सांत्वना के शब्द इस दर्द का मरहाम नहीं हो सकते।
व्यक्ति, समुदाय, समाज और फ़िर राष्ट्र
यह सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

Monday, November 24, 2008

एक और उम्मीद

टूटे सपनों के उस पार भी है ज़िन्दगी,
गम के किनारे ही चलती है हर खुशी।
जमा ले नज़र उस रास्ते पर तू,
धुंध हटने पर फ़िर दिखेगी मुस्कुराती ज़िन्दगी।

कुछ दोस्त भी नज़र आएंगे इन राहों में,
शायद दुश्मन भी मिले हर मोड़ पे तुझे।
थाम ले होंसले का दामन पल भर को,
करेगी कायनात पूरा तेरे हर सपने को।

Tuesday, November 18, 2008

एक पैगाम

कल्पना हो कभी,
और कभी जीवन का अटूट सच।
सुर हो कभी,
और हो खामोशियों में गूंजने वाली धड़कन भी।
अपनी सी ही हो,
और कभी अनजान खुशी की दस्तक जैसी।
इससे पहले की तुम अपने दिल की बात कहो,
मैं कहना चाहता हूँ की मेरे गाव का रास्ता
एक टूटी पगडण्डी से होकर जाता है,
क्या तुम चल पाओगी
गुलाब तोह नहीं,
पर तुम्हारे हर कदम पर अपनी कल्पना
की रेशमी चादर ज़रूर बीचा सकता हूँ।
वैसे उस पगडण्डी के कांटे तुमको
नहीं चुभेंगे क्यूंकि उनका सारा दर्द
अपने दिल में समाये बैठे हैं।
कब तेरा आएगा पैगाम
यह आस लगाए बैठे हैं।