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Monday, August 31, 2009

फर्क सिर्फ़ प्यार का है


फर्क सिर्फ़ प्यार का है,
ज़ंग और अमन में, आंसू और हँसी में
फर्क सिर्फ़ प्यार का है।
रिश्तों की दूरी, अजनबी की करीबी
में फर्क सिर्फ़ प्यार का है।
अनसुनी धड़कन, और दीवाने हुए मन में
फर्क सिर्फ़ प्यार का है।
नहाए खेतों और तपती रेत में,
फर्क सिर्फ़ प्यार का है।
सूरज की गर्मी और चाँद की नरमी में
फर्क सिर्फ़ प्यार का है।
अनसुलझे सवाल और एक खूबसूरत जवाब में,
फर्क सिर्फ़ प्यार का है।
तुझमें, मुझमें, और हम सब में,
फर्क सिर्फ़ प्यार का है।



Tuesday, August 25, 2009

चाचा छक्कन की दिलचस्प दास्ताँ - भाग ३


(वर्त्तमान , चाचा का घर , चाचा हुक्का गुड गुड करते हुए )

कोई है? अनुराग? अरे शीतल? शन्नो? पता नहीं पौ फट ते ( सुबह सुबह ) ही सब कहाँ गायब हो गए? यह कमबख्त कुमारी बहिन भी बाज़ार गई हुई है। बोला था की नौकर को मेरे पास छोड़ जाओ पर बड़ी माँ के जाने के बाद यहाँ मेरी कौन सुनता है। बूढा जो हो गया हूँ, वैसे भी अब न राज रहा न वोह शान-ओ-शौकत , पर चांदनी चौक में आज भी हमारा वोही रुतबा है जो राय साहब दिन दयाल के ज़माने में था। अब यह आजकल के नौजवान क्या समझेंगे शाही बातों को? इनको तोह वोह क्या कहते हैं सनेमा में जाने से ही फुर्सत नहीं मिलती। हम ठहरे पुराने शाही ख़यालात के लोग। अब हमारे साथ समय बिताने के लिए भी इनके पास समय नहीं। अभी जो हमारे पिताजी यहाँ होते तोह एक एक की टंगे तुड़वा देते।

खैर जो भी कहो घर में सब मुझे बड़ा प्यार करतें हैं, जानता हूँ की मेरे कड़क रवय्ये के कारण कई बार घर में मन मुटाव पैदा हो गया था पर मैंने कभी भी अपनी बात को मनवाने के लिए ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं की। हाँ मलाल बस एक बात का है की कुमारी बहिन के साथ जो कुछ हुआ उसका जिम्मेदार मैं ही हूँ। काश उस वक्त माँ को उनके पैरों में पड़ के चुप करा दिया होता जब उन्होंने वसुंधरा के होने पर कुमारी बहिन को घर से निकालने के लिए खुदकुशी करने की धमकी दे डाली थी। लो कुमारी बहिन भी बाज़ार से वापस आ गई, ज़रूर खाने को कुछ लायी होगी।

कुमारी बहिन: आपको कितनी बार मना किया है की इतना हुक्का मत पिया करो पर तुमने कभी मेरी सुनी हो तोह कहने का फायदा भी है। इस घर में रहते मुझे ३५ साल हो गए हैं, पर मेरी हालत इस घर में किसी पुराने शाही सोफे से जादा नहीं है। शाही इसलिए क्यूंकि कहने को अब भी पुरानी दिल्ली के सबसे मशहूर परिवार की बड़ी बहु हूँ पर अब इस दकियानूसी शान को और खेंच पाना मेरे बस की बात नहीं।

चाचा: उफ़ हो , तुम तोह जब देखो तीसरे विश्व युद्घ के लिए तैयार खड़ी रहती हो, कभी दो शब्द मीठे बोल लोगी तोह तुम्हारा क्या चला जाएगा।

कुमारी बहिन: डाक्टर साहेब ने तुम्हे मीठा देने को सख्त मन किया है, और तोह और तुम्हारी प्यारी शन्नो ने तोह तुम्हे इस ज़िन्दगी में मीठा न दिखाने की कसम खा रक्खी है।

चाचा: तुम सबने तोह मुझे जीते जी मारने की मानो ठान रक्खी है। कामिनी शादी होकर क्या गई मेरा तोह सुख चैन ही चला गया।


कुमारी बहिन : हाँ हाँ जानती हूँ, तुमने तोह साड़ी दुनिया को ही अपना दुश्मन मान रखा है, कभी कभी उस दिन को कोसती हूँ जब तुमसे पहली बार मिली थी। काश उस दिन मेरे बाबा मुझे बरसाने से मथुरा न लाये होते।



(होली का दिन) मथुरा में लठ मार होली कई सौ साल से मनाई जा रही है, मैं और मेरी सहेलियां उस दिन उसी के लिए मथुरा जा रही थी। हम सबका एक ही लक्ष्य था , कान्हा के दल की जम के पिटाई, माँ बताती थी की कैसे इसी दिन अपने कृष्ण मतलब बाबा से मुलाकात हुई। वैसे राधा कृष्ण की इस मनमोहक नगरी में न जाने कितनी अनगिनत प्रेम कहानियाँ लिखी गई हैं। अपने जीवन में मैंने ख़ुद अनेक यात्रियों को वृन्दावन मथुरा बरसाने के प्रेम में डूब कर ख़ुद को भुलाते और नटखट नन्दलाल के प्रेम में बावरे होकर गली गली भटकते देखा है। उसका माखन चोर का मोह ही कुछ ऐसा है की आप अपने आप और अपनी ज़िन्दगी को भुला उसी के प्रेम में डूब जाना पसंद करते हैं। उसके बाद ब्रह्माण्ड का राज भी आपको फीका मालूम पड़ता है। उस परम आनंद का अनुभव बहुत ही किस्मत वालों को मिलता है। इसीलिए प्रेम के भूके यात्री जो मथुरा वृन्दावन आते हैं, वे राधा रानी के दर्शन को बरसाने अवश्य ही जाते हैं । हमारे गाँव में यह हमेशा से कहा गया की कृष्ण को पाने का रास्ता राधा रानी के गाँव से होकर ही जाता है।


हर साल की तरह मैं और मेरी सहेलियां ग्वाल बालन के साथ होली खेलने को मथुरा के लिए रवाना हो गई। मार्ग में लोगों का उत्साह पिछले कई सालों से जादा ही था । हम सब सहेलियों ने इस बार अपने अपने लठ को खूब तेल पिला के रखा था और सब ग्वाल बालन को खूब पिटाई करने के मन से ही घर से निकली थी। वैसे तोह लठ मार होली दुनिया भर में मशहूर है पर इसके पीछे छिपा एक अनोखा प्यार बहुत ही कम लोग समझ पाते हैं।


लो रंग में हुर्दंग मचाते ग्वालों की पहली टोली दिखाई दी। जुबान पे सिर्फ़ उसी नन्दलाल का नाम, न जाने कैसा जादू कर दिया है की लठ की मार के बाद भी चेहरे पे कोई शिकन नहीं बल्कि प्रेम रंग में डूबे दीवाने की तरह फ़िर लठ के नीचे आने की ललक दिखाई पड़ती है। भगवान ही बचाए इन दीवानों से अब तोह। बरसाने की सभी टोलियाँ वृन्दावन - मथुरा पहुँच चुकी थी और कुछ ही देर में प्रेम और रंग का ऐसा अनोखा एवं मनोहर संगम होने वाला था जिस दृश्य की सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है। हमारे वहां पहुँचते ही कुछ ही देर में सारे आकाश में से रंगों की एक आंधी चल पड़ी और शरीर की हर थकन को कुछ ही पलों में उड़ा के ले गई।


रंगों में नहाती वृन्दावन की गलियों से गुज़रते हुए हम वहां पहुँच गए जहाँ लठ मार होली खेली जा रही थी। ग्वाल बालन के दल कमर कस के खड़े थे और जैसे ही उन्होंने हमें छेड़ना शुरू किया सभी ने अपने लठ को निकला और पिटाई शुरू कर दी। अपने को बचाते ग्वाल बालन ने ब्रज गीत के ज़रिये हमें छेड़ना बंद नहीं किया। उनकी देखा देखि हमने भी गीत गाने शुरू कर दिए।


अरी भागो री भागो री गोरी भागो, रंग लायो नन्द को लाल।
बाके कमर में बंसी लटक रही और मोर मुकुटिया चमक रही
संग लायो ढेर गुलाल, अरी भागो री भागो री गोरी भागो,रंग लायो नन्द को लाल।


चारों तरफ़ से रंग ही रंग बरस रहा था, ब्रज के ग्वाल बालन के गीतों की गूँज आज इन्द्र के सिंघासन को हिलाने के लिए काफ़ी थी। ऐसे में दिल को काबू कर पाना किसी भी इंसान के लिए कठिन है।

हाथों में लठ लिए मैं भी इस रंगों की बारिश का आनंद लेने को कूद पड़ी। लठ बरसाती , गीत गाती , प्रेम और खुशी के अश्रु गिराती, ख़ुद को भूलती, नन्द के लाल से एक पल शर्माती, रूठ जाती और फ़िर उसे प्रेम पूर्वक मनाती। एक पल को ऐसा लगा की काश इसी रूठने और मनाने में जीवन बीत जाए। कुछ देर के बाद वोह रंग का तूफ़ान तो ठहर गया पर मेरे दिल में एक और तूफ़ान खड़ा कर गया - इस बार शायद वोह तूफ़ान मेरे भीतर ही आया था।


उसने एक पल को देखा और मेरी साँस रुक गई। उसके शीतल स्पर्श को जीवन भर नहीं भुला सकी। ऐ सखी कौन है वोह ? कहाँ चल दिया, पल भर में, मेरी धडकनों , मेरे सपनों को अपने पीछे लिए। मैं बावरी होकर उसके पीछे भागी जा रही थी, न परिवार, न समाज और ख़ुद को भी भुलाये बस सिर्फ़ एक ही इच्छा दिल में लिए , रुक जाओ सिर्फ़ एक पल के लिए ही सही, रुक जाओ। उसको रंग के गुब्बारे के बीच गायब होता देख मैं चिल्ला उठी यह सोचकर की शायद अब फ़िर कभी न देख पाऊँ उसे इस जीवन में। टूटती साँसों ने एक आखिरी पुकार लगायी - रुको रुको रुको

और फ़िर


<<part 1 << पार्ट 2

Monday, August 24, 2009

प्रेम की परिभाषा


एक जवान रात चांदनी से पूछ बैठी,
क्या चाँद तुम्हे मुझसे अधिक प्रेम करता है?
कुछ पल सोचने के बाद, चांदनी बोली:
की जिस तरह श्री कृष्ण के भीतर राधा
उनके प्राण बनके रहती हैं,
मैं चाँद में उसकी श्वास, धड़कन और आत्मा
बनके रहती हूँ।

और ऐ हसीं रात तुम वृन्दावन की
वोह मधुर गलियां हो
जो राधा कृष्ण के अटूट प्रेम के
दृश्य को हल पल महसूस कर रही हैं,
तुम जमुना का वोह किनारा हो
जहाँ देवताओं ने राधा-कृष्ण की
चरण वंदना की थी,
तुम मीराबाई हो जो श्री कृष्ण
के प्रेम में बावरी होकर
सारे ब्रह्माण्ड में भटकती हो।
तुम सत्य हो।
ऐ हसीं सुहानी रात, तुम धन्य हो!

Friday, August 21, 2009

मुश्किल है

उस नमी को भूल पाना मुश्किल है ,
उस हँसी को भूल पाना मुश्किल है,
बारिशों में भीगी तेरी धडकनों को
भूल पाना मुश्किल है।

खामोशी में कही वोह हर बात याद है,
उस कमरे से खिसकती वोह रात भी याद है,
नशे में अभी तक हूँ शायद,
इसलिए पिछली सर्दियों की
हर मुलाकात मुझे याद है।

मेरे छूने का कुछ तोह एहसास हुआ होगा तुझको,
क्या इस दीवाने की कभी याद न आई तुझको,
स्वप्न में ही सही
पर वोह दीवानगी भुला पाना मुश्किल है।

उस नमी को भूल पाना मुश्किल है,
तेरी भीगी धड़कनें भुला पाना मुश्किल है..

Monday, August 17, 2009

चाचा छक्कन की दिलचस्प दास्ताँ - पार्ट २ ( पहला भाग )


आख़िर कौन भुला सकता है ३० साल पहले की वह रंगों में नहाई वृन्दावन की मदमस्त सुबह। मेरे जीवन का ऐसा अनुभव जो शायद किसी के भी जीवन का रुख मोड़ सकता है। मेरे बाबा यानि की राए बहादुर दिन दयाल के ही एक बचपन के मित्र गोकुल दास जी, जो मथुरा के काफ़ी पुराने रहने वालों में से एक हैं, हम इस साल उन्ही के घर होली मनाने जा रहे हैं। बचपन से आज तक मैंने कई बार मथुरा की होली के बारे में सिर्फ़ सुना ही था। कभी लोगों से और कभी माँ ही वृन्दावन , मथुरा और बरसाने की होली के बारे में बताती और मेरा मन वहां की होली देखने को और भी करता। जब एक नौकर से पता चला की बाबा को मथुरा से होली का न्योता आया है तब मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। हलाँकि मैं इक्कीस बरस का हो चुका था पर बाबा के डर के मारे कभी भी बिना पूछे मथुरा तोह क्या पुरानी दिल्ली के बहार भी नहीं गया था। बिना पूछे जाना शाही शान के प्रति गुस्ताखी जो मानी जाती। भई आख़िर हमारा खानदान मुग़ल परिवार के काफ़ी करीब था, तोह उस हिसाब से हमारी हवेली भी किसी राज परिवार से कम न थी। मेरी दो बहनों ने तोह शादी तक कभी गली के बाहर की दुनिया ही न देखी थी। कभी कभी बाबा के इस कड़क रवय्ये से मैं काफ़ी नाखुश रहता और इस बात का ज़िक्र भी मैंने एक दफा माँ से किया था जिसपर उसने मुझे ग़लत दोस्तों की सांगत का असर बता के चुप करा दिया। खैर, समय के साथ मुझे भी इस बात का भरोसा हो गया की शाही परिवारों में यह बातें आम ही होती हैं और चूंकि पिताजी की उम्र बढती जा रही है तोह शाही रस्म को निभाने के लिए उनके बाद उस गद्दी को मुझे ही संभालना होगा।

वैसे तोह गोकुल दास जी के परिवार का हमारे यहाँ बचपन से आना जाना था पर शायद यह पहली बार हम उनके घर होली मानाने जा रहे थे। इतने वर्षों में हमने जादातर होली अपनी हवेली में ही मनाई थी, बाबा के सख्त निर्देश थे की कोई भी व्यक्ति हवेली के बहार जाकर होली नहीं मनायेगा। जो लोग बाबा को गुलाल लगाने आते, वे ही हम सबको थोड़ा सा रंग लगा जाते। वोह तोह जब हम कालेज में आए तोह माँ के जिद्द करने पे उन्होंने मुझे अपने दोस्तों के साथ कुछ घंटों के लिए बाहर होली मनाने की मंजूरी दे दी। यूँ तोह होली पे पुरानी दिल्ली में भी हुल्लड़बाजी कम नहीं होती, सुबह से ही सब छतों पे खड़े लोग रंगों की बाल्टी लिए हर आने जाने वाले का स्वागत करने को तैयार रहते हैं। हर नुक्कड़ पे रंंगे हुए लड़के- लड़कियों की फौज आपको भिगोने की साजिश में तैनात रहती है। और फ़िर वोह चोराहों पे गरमा गर्म समोसे, जलेबी और गुजिया की सुगंध तोह किसी को भी बेहोशी के आलम से उठाने के लिए काफ़ी है। इन सब के बाद भी मथुरा की होली देखने की उत्सुकता हमेशा से मेरे दिल में रही।

हम होली से तीन दिन पहले ही गोकुल दास जी के यहाँ पहुँच गए। गोकुल दास जी के घर में सभी ने हम सबसे बड़े ही प्रेम के साथ बात की। मानना पड़ेगा की दिल जीतना तोह कोई ब्रज के लोगों से सीखे। होली से दो दिन पहले पहुंचकर हमने गोकुल दास जी के लड़कों के साथ खूब धमाल मचाने की तय्यारी में जुट गए। तरह तरह के रंग तैयार करना, आँगन में तालाब की सफाई करवाना, और तोह और ताज़ा गोबर का भी प्रबंध हो चुका था। बस अब तोह इंतज़ार था मथुरा की गोपियों को रंगने का।

आख़िर वोह दिन आ ही गया जिस दिन पूरा देश वृन्दावन और मथुरा की ताल पे थिरक उठता है। ब्रज के रन बाँकुरे सुबह से ही तय्यारी में लगे हुए थे की आज तोह हर आने जाने वाली छोरी को बिना रंंगे नहीं जाने देंगे।

होली के दिन , कृष्ण की नगरी में रंग और प्रेम के इस कुम्भ को देखने के लिए हजारों लोगों की भीड़ उमड पड़ी थी। पुरानी दिल्ली में हमने कई बार झाकियां देखि थी पर आत्मा को छू देने वाले उस मंज़र के बारे में कभी कल्पना भी नहीं की थी। कृष्ण के प्रेम में नाचते हुए युवक युवतियां, लाल, हरे, पीले, गुलाबी, हर रंग में सराबोर वृन्दावन की गलियां, और बांके बिहारी की एक झलक को बेताब हर में नज़र। यह दृश्य देवताओं को भी मानव रूप लेने को मजबूर कर सकता था।
पर इसी बीच में मैं नहीं जानता था की मथुरा नगरी में आकर मैं उस शक्स से मिलूंगा जिससे मेरे आने वाले जीवन का रुख ही बदल जाएगा।

आगे का अगले अंश में..

Thursday, August 06, 2009

एक संदेश चोर के नाम

प्यारे चोर भाई,

आशा है आप अभी तक दिल्ली की सीमा पार करके बहुत दूर निकल गए होगे। इतनी दूर की अब तोह आपसे इस जीवन में मिलना भी कठिन हो जाएगा। खैर कोई बात नहीं, कल दिन में घटी घटना के बाद मैं रात भर नहीं सो पाया, इसलिए नहीं की आप हमारी नई गाड़ी बिना बताये ले गए बल्कि इसलिए की उसके साथ आप न चाहते हुए काफ़ी कुछ और भी ले गए। शायद आपको नहीं पता पर हम एक मध्यम वर्ग परिवार हैं, मेरे माता -पिता दोनों का ही बचपन बहुत कठिन परिस्थितियों में बीता। जीवन भर दोनों ने अपनी नौकरी में परिश्रम करके कुछ छोटी छोटी खुशियाँ अपने परिवार के लिए खड़ी करी। मुझे आज भी याद है की मेरी और मेरे भाई की छोटी ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए उन्होंने हर वोह प्रयास किया जो वोह कर सकते थे। हमें पब्लिक स्कूल में दाखिला दिलवाना, महंगी किताबें, खिलोने, कपड़े , वोह सब कुछ जो शायद एक मध्यम वर्ग के परिवार का एक सपना था, और उनका यह परिश्रम देख कर मैंने भी कभी किसी चीज़ के न होने की शिकायत नहीं की। इन सब बातों को देख कर मेरे दिल में सिर्फ़ एक ही ख्याल आया की मैं भी अपनी अगली पीढी को जितना सुख दे सकता हूँ दूँगा पर उनको यह बात ज़रूर याद दिला दूँगा की इन सबको पाने में न जाने कितनी और पीढियों का त्याग और तपस्या लगी हुई है।

खैर मैं नहीं जानता की आपने हमारी गाड़ी क्यूँ ली? शायद आपकी भी कोई मजबूरी रही होगी, कोई पुराना क़र्ज़ या बहन की शादी के लिए पैसों की ज़रूरत या फ़िर किसी के गुमराह करने के कारण। पर बात यहाँ एक गाड़ी की नहीं है , बात यहाँ एक परिवार की उन छोटी खुशियों की है जो काफ़ी अरसे बाद उन्हें मिली थी। एक इंसान जो कई सालों से चिलचिलाती गर्मी हो या बारिश या फ़िर ठेट सर्दी , वोह रोज़ कई किलोमीटर बच्चों को पढाने बसों में जाती थी, यह गाड़ी उसके लिए किसी चमत्कार से कम नहीं थी। मैंने देखा है उसे बच्चों की तरह खुश होते, सिर्फ़ इस बात पे की ज़िन्दगी में पहली बार उसने अपनी पसंद की कुछ चीज़ खरीदी।

शायद गाड़ी ले जाते समय तुमने पिछली सीट पे रक्खे वोह हँसी और मासूम सपने नहीं देखे जिन्हें किसी ने बड़े ही चाव से उसे गाड़ी लेते समय बुना था। मैं जानता हूँ तुम शायद गाड़ी वापस न लौटा पाओ पर हो सके तोह वे सपने लौटा जाना क्यूंकि अब तोह वोह इंसान सपने देखने से भी डरने लगा है, और आज के बाद कृपा करके किसी मध्यम परिवार के सपनों को मत चुराना क्यूंकि क्या पता उन्हें फ़िर बुनने में और कितना समय लग जाए।

तुम्हारा शुभचिंतक
पियूष

Tuesday, August 04, 2009

चाचा छक्कन की दिलचस्प दास्ताँ - पार्ट १


वैसे तोह आप सबने बचपन में , खासकर अपने स्कूल के दिनों में कई किस्से और कहानियाँ पढ़ी होंगी। कुछ कहानियों के पात्र तोह ऐसे होते थे जो हमेशा के लिए अपनी अमित छाप हमारे मस्तिष्क पे छोड़ जाते थे। अब मिसाल के तौर पे आर के नारायण द्वारा रचित मालगुडी देस के पात्र स्वामी को ही ले लीजिये , यूँ तोह स्वामी नौ - दस साल का एक छोटे गाँव का लड़का था पर जिस खूबी से उस पात्र ने सभी का दिल जीत लिया, यह वाकई में हैरत की बात है। स्वामी आजकल की पीढी से बिल्कुल अलग था, कभी कभी तोह सोच कर यह लगता है की क्या मालगुडी जैसी जगह वाकई में हो सकती है। इतने सरल, इतने साधारण लोग इस दुनिया के नहीं हो सकते। देखा जाए तोह जिस समय में मालगुडी लिखा गया था , वोह समय ही अलग था। शायद आज की इस राजधानी एक्सप्रेस जैसी ज़िन्दगी में स्वामी जैसे सरल पात्र को ढूँढ पाना कुछ मुश्किल सा मालुम पड़ता है। खैर बदलाव एक सच है और हम इससे मुँह नहीं मोड़ सकते, हर समय के साथ समाज में कई बदलाव आते हैं , व्यक्तियों में बदलाव आते हैं और देखते ही देखते आईने में दिखने वाली परछाई बदल जाती है। पर शायद इसे भारत देश का भाग्य कहें की वोह सरलता और वे साधारण लोग अब भी किसी कोने में छिपे दिख जाते हैं, खासकर हमारे हिंदुस्तान के छोटे शहर जैसे की कानपुर , आगरा, इलाहबाद, मेरठ इत्यादि।

अब आप जादा दूर न जायें, मिसाल के तौर पे हमारे प्यारे चाचा छक्कन को ही ले लो, जी हाँ , चाचा छक्कन कोई मामूली व्यक्ति नहीं है, एक ज़माने में चांदनी चौक के काफ़ी बड़े रईस हुआ करते थे इनके दादा-पड़ दादा। कहते हैं कई ज़माने पहले बहादुर शाह ज़फर के दरबार में इनके घर की शान के बारे चर्चे हुआ करते थे। पर समय के साथ खानदानी शान कुछ फीकी पड़ती रही। पर खानदानी रईस तोह भाई खानदानी रईस होते हैं, उनका मिजाज़ , उनके तौर - तरीके ही अलग होते हैं। हमारे चाचा छक्कन भी प्राण जाए पर शान न जाए में ही विश्वास करते हैं। आज भी आप उनके घर जायें तोह कहीं किसी कोने में पुरानी शान-ओ-शौकत का नज़ारा देखने को मिल ही जाएगा। वोह रंग उतरे मखमली परदे, घुसल खाने में थोडी सी बची चांदी की नक्काशी, रसोई घर में पुराने पीतल के बर्तनों का ढेर, और भी न जाने क्या क्या। पर ख़ास बात यह है की राज शाही थाट बाट जाने के बाद भी हमारे चाचा छक्कन आज भी अपने अन्दर एक शाही दिल रखते हैं। उनका मानना है की जो रुतबा उनका और उनके परिवार का एक ज़माने में रहा करता था , वे उसी रुतबे के साथ इस दुनिया से जाना चाहते हैं।

खैर चाचा छक्कन के बारे में हम तसल्ली से बताएंगे , आईये उनके घर के कुछ लोगों से भी आपको परिचित करा दें। चाचा छक्कन की दो बीवियां( शन्नो, कुमारी बहिन ) जिनसे उनके ३ बेटे ( अनुराग, रामदेव , शीतल ) और २ बेटियाँ ( कामिनी , वसुंधरा ) हैं, दोनों बेटियों की शादी उन्होंने काफ़ी ज़ोर शोर से की थी। कहते हैं चांदनी चौक में ऐसी शादियाँ काफ़ी कम ही देखने को मिलती हैं। वसुंधरा की शादी में तोह उनका खानदानी रसोइया बम्बई से बुलाया गया था। दोनों ही शादियों में दुल्हे रजा को घोडे के जगह शाही हाथी पे बिठाया गया। यहाँ तक की इक्कीस तोपों की जगह इक्कीस गोलियों की सलामी भी दी गई। और मेहमानों की खातिर में तोह कोई कमी नहीं छोड़ी गई। छप्पन तरह के पकवान , मिठाईयां, चांदनी चौक की मशहूर चाट, कुल्फी, बच्चों के लिए सर्कस के करतब , और भी न जाने क्या क्या। कुछ पल के लिए तोह लगा की शायद चाचा के शाही दिन वाकई वापस आ गए हों। बेटियों की शादी इस शान-ओ-शौकत से करने के लिए चाचा को अपना बचा खुचा सारा सोना बेचना पड़ा। कहते हैं न बड़े दिलवालों की तोह बात ही कुछ और होती है।

हम जानते हैं की आप चाचा की दो बीवियों के रहस्य के बारे में जानना चाहेंगे, तोह सुनिए हुआ यूँ की चाचा की पहली बीवी थी कुमारी बहिन ( इनका नाम कुमारी बहिन कैसे पड़ा यह किस्सा हम किसी और दिन सुनेंगे ), कुमारी से चाचा को हुई दो बेटियाँ कामिनी और वसुंधरा। अब चाचा की जो माँ थी वोह काफ़ी पुराने ख़यालात की थी, जब तक कामिनी थी तबतक ठीक ठाक था, वसुंधरा के होने पर घर में खूब बड़ा बवाल मच गया। यहाँ तक की चाचा की माँ ने कुमारी बहिन को मनहूस बता घर से निकालने तक का फ़ैसला कर लिया। फ़िर चाचा ने घर के बड़े बूढों से मशवरा लेने के बाद दूसरी शादी करने का तय किया। हालांकि इन सब में कुमारी बहिन के मन में कहीं मनहूस होने वाली बात घर कर गई। चाचा की दूसरी शादी के समय कुमारी बहिन बेटियों सहित अपने मायके चली गई और शादी होने के कई महीने बाद ही वापस आई। शुरू शुरू में अपनी सौतन शन्नो को अपने घर में देखना उन्हें एक आँख न भाता था, पर वोह भी क्या करती चाचा की जिद्द के आगे। चाचा की दूसरी शादी के कुछ साल में ही उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया, अब इतनी बड़ी हवेली में बचे सिर्फ़ चाचा, शन्नो , कुमारी बहिन और उनकी दो बेटियाँ। जैसे जैसे समय बीतने लगा शन्नो और कुमारी बहिन की बीच की दूरी थोडी कम होने लगी। हालांकि पड़ोस में लोग तरह तरह की बातें बनाते ही रहते पर चाचा के सामने किसी की कुछ भी बोलने की हिम्मत न होती।

शन्नो से चाचा को तीन बेटे हुए, सबसे बड़ा अनुराग, फ़िर रामदेव और सबसे छोटा शीतल। वैसे तोह चाचा का यह सख्त निर्देश था की किसी भी बच्चे के साथ सौतेला बर्ताव न किया जाए, पर कामिनी और वसुंधरा ने कभी भी अपने भाइयों और कुमारी बहिन को सौतेला नहीं समझा। पाँचों बच्चे पढने में काफ़ी अच्छे थे। कामिनी और वसुंधरा को स्कूल से गोल्ड मैडल भी मिल चुका था जिसे चाचा ने अपने दीवान के साथ सजा के रखा था और हर आने -जाने वाले को एक साल तक बिठा बिठा के दिखाते रहे।

जब शीतल पाँच साल का था, कामिनी की शादी चांदनी चौक के ही एक नामी वकील सुधीर बाबु से पक्की हो गई। सुधीर बाबु के पिताजी राए साहेब हमारे चाचा के कई साल पुराने मित्र हैं। एक समय इन्ही के परिवार ने चाचा को लेनदारों से छुटकारा दिलाया था। अपनी शान को बनाये रखने के लिए चाचा छक्कन के पिताजी ने कई लोगों से क़र्ज़ उठा लिया था जिसे वोह नहीं चुका पाए। यूँ तोह कहने को पुरानी दिल्ली में चार हवेलियाँ , पाँच दुकानें और कुछ छोटी फेक्ट्री भी हैं जिनके किराये से घर का खर्चा चल रहा था पर समय के साथ खर्चे बढ़ गए पर किराया वहीँ का वहीँ रह गया। बल्कि कुछ किरायेदारों ने तोह उसे अपना घर समझ के रहना शुरू कर दिया और पच्चीस साल के बाद भी वहीँ हैं। जब कभी चाचा मकान खाली करने की बात करते हैं तोह वे यह कहकर चुप करा देते की "आपको हमसे क्या तकलीफ है, हम किराया वक्त पे पहुँचा देते हैं और बिल्कुल अपना समझकर यहाँ रहते हैं। " और हमारे चाचा छक्कन का दिल भी तोह मोम है मोम, पिघल जाता है थोड़े से आंसू देखकर। इसी बात पे चाचा का कई बार शन्नो से झगडा हो चुका है जिसे रोकने के लिए कुमारी बहिन को बीच में आना पड़ता। एक बार तोह बात तलाक तक पहुँच गई थी जिसके बाद शन्नो अपने मायके चली गई और कुमारी बहिन के जिद्द करने पर ही चाचा उसे मन के वापस लाये । वैसे घर छोड़ के जाने की परम्परा चाचा के घर में काफ़ी पुरानी है। पर यह पहली बार ही है की चाचा अपने खानदान के उसूलों को भुला कर शन्नो को मना के ले आए।

यह लीजिये हम जिनकी बात कर रहे थे, वे ख़ुद ही आ गए। अब बाकी की बातें आपसे चाचा ख़ुद ही करेंगे मैं चलता हूँ। :)

Saturday, August 01, 2009

शुक्रिया कहिये!


न रुकिए, न सोचिये,
बस कहिये, अजी अब कहिये भी।
जी हाँ! सिर्फ़ शुक्रिया कहिये।

चलिए मैं ही शुरुवात किए देता हूँ।
शुक्रिया!
उस खूबसूरत सुबह का,
जिसने मुझे अंधेरे और उजाले में अन्तर करना सिखाया।
उन छोटी गलियों का शुक्रिया जिन्होंने
मुस्कुराते हुए मेरे बचपन का हाथ
जवानी को सौंप दिया।

शुक्रिया उस कड़क चाय के प्याले का,
जिसने मेरी पहली नौकरी दिलवाई।
और हाँ! उस पल का भी शुक्रिया,
जब मैंने माँ की गोद में पहली बार आँखें खोली।
शुक्रिया उस मेज़बान का शुक्रिया,
जिसने मेरे बुरे वक्त में मुझे अपना आशियाँ दिया।
शुक्रिया ज़िन्दगी के हर उस लम्हे का
जिसमें मैंने कई जिंदगियों को जिया।
उस नन्हे आंसू का भी शुक्रिया,
जिसने मेरे कई ग़मों को अपने में समां लिया।
शुक्रिया!

तहे दिल से शुक्रिया,
उस अजनबी का जिसने मेरे रस्ते को
ख़्वाबों से भी हसीं बना दिया।
पर सवाल है की माँ तेरा शुक्रिया मैं कैसे करूँ ?
कैसे करूँ मैं शुक्रिया मैं उन अनगिनत पलों का,
जब मेरे नन्ही उँगलियों को छूने के लिए,
तू सारी कायनात से जूझ रही थी।
तेरी उस हर हँसी का
जो मेरी ज़िन्दगी का मकसद बन गई।
माँ जानता हूँ मैं सिर्फ़ एक इंसान ही हूँ,
जो बात एक बेटा न कह सका,
शायद एक इंसान अपने भगवान् से कह सके।
शुक्रिया!