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Friday, April 30, 2010

एक हुस्न की तारीफ में शब्द पड़ रहे हैं कम

जब शब्द हों हुस्न की खूबसूरती बयां करने के लिए तो दिल कुछ ऐसा कहता है

एक हुस्न की तारीफ में शब्द पड़ रहे हैं कम,
जिनसे मिलने की जुस्तजू हर पल कर रहे हैं हम

दिलों को लूट लेना उनका शौक सा लगता है,
दिल लुटा देना हमने भी सीख रखा है

वह लुफ्त लेते हैं हमको दर्द देने में,
नशा ढून्ढ रखा है हमने भी दर्द सहने में

एक बार जो वह देख ले यहाँ आकर
लुटा दें यह ज़िन्दगी उसे खुदा बनाकर

उन्ही नज़रों के उजालों से ही है रोशन,
मेरे दिल का हर कोना और यह बावरा मन

संगमरमर से तराशी हुई सी वह लगती है,
ख्वाबों में भी दीवाना करे रखती है

जो रूठी इस बार तो निकल जाये यह दम,
एक हुस्न की तारीफ में शब्द पड़ रहे हैं कम
एक हुस्न की तारीफ में शब्द पड़ रहे हैं कम


Thursday, April 29, 2010

जब भी यह दिल उदास होता है - सीमा (१९७१)


जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस पास होता है

होंठ चुप चाप बोलते हो जब
सांस कुछ तेज़ तेज़ चलती हो
आँखें जब दे रही हो आवाजें
ठंडी आँहों में सांस जलती हो
ठंडी आँहों में सांस जलती हो..
जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस पास होता है

आँख में तैरती हैं तसवीरें
तेरा चेहरा तेरा ख्याल लिए
आईने देखता है जब मुझको
एक मासूम सा सवाल लिए
एक मासूम सा सवाल लिए

जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस पास होता है..

कोई वादा नहीं किया लेकिन
क्यों तेरा इंतज़ार रहता है
बेवजह जब करार मिल जाए
दिल बड़ा बेकरार रहता है
दिल बड़ा बेकरार रहता है

जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस पास होता है...

गायक - मोहम्मद रफ़ी
फिल्म - सीमा (1971)
गीतकार - गुलज़ार

Wednesday, April 28, 2010

लाख शब्दों में एक बात..बंद करो बंद करो!


बस और नहीं..कहा ना अब और नहीं झेला जाता यह शब्दों और समय के साथ होता हुआ दुर्व्यवहार। आप ही कहिये कब तक झेलें हम इन अल्ल्हड़ और पढ़े लिखे जाहिलों की जमात को। जब बोलना शुरू करते हैं तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेते। एक बात को जब तक पचास तरीके से न बोल लें इन हज़रात को चैन ही नहीं पड़ता। ऐसा लगता है की रात को खाने में जादा खा लेने की वजह से इन्हें नींद नहीं आई और जिसका जुर्माना हम आम जनता को भुगतना पड़ रहा है।

जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ कुछ उन लोगों की जो छोटी सी बात को १ किलोमीटर लम्बा करके बताते हैं। अरे भाई, कोई समझाओ इन्हें की समय का भी कोई मूल्य होता है, माना की आपके पास में उसकी भरमार है पर इसका मतलब यह नहीं कीहम सब की झोली में जो थोडा समय बचा है आप उसे भी हमसे छीन लेंगे। मुझे सख्त नफरत है उन लोगों से जो एक ही बात को दस तरीके से बोलते हैं, या अपने को सही साबित करने में सारा जीवन निका देते हैं। आपको भी कभी मिलें तोह गौर से देखिएगा इन सज्जन पुरुष को, वैसा बातें तो काफी मजेदार करते हैं पर समस्या है की बहुत सारी करते हैं। इन्हें सिर्फ मौका चाहिए शुरू होने के लिए, फिर देखिये, चूहे के दांत और दर्जी की केंची एक तरफ, इनकी ज़बान दूसरी तरफ।

आप ही कहिये, जो बात चंद शब्दों में कही जा सकती है उसे कहने के लिए वाल्मीकि रामायण लिखने की क्या ज़रुरत है। औरफिर भी किसी का मन न भरे तो वे सूरदास, कालिदास को भी पीछे छोड़ दें। मैं तोह कहूँगा की यह एक तरह का सामाजिकअत्याचार है और इसे करने वाले से जादा झेलने वाला दोषी है क्यूंकि वह उसे बढ़ावा दे रहा है जिसकी वजह से कल कोई औरइसी अत्याचार का शिकार बनेगा।

यह सब बातें में यूँ ही हवा में नहीं बोल रहा हूँ, पिछले ५ सालों के एक्सपीरिएंस के कारण कह रहा हूँ। भारत में यह पटर पटरकरने की सभ्यता नहीं थी, कमबख्त यह अंग्रेजों की अंग्रेजी ने घिटिर-पिटिर सिखा दी आजकल के नौ जवानों को। खैर बातयहीं समेटते हुए आपकी इजाज़त चाहूँगा वर्ना कोई मुझपे भी ऊँगली उठा सकता है जादा पटर पटर करने के लिए।

इसीलिए मैं आग्रह करूंगा अपने प्यारे भारत वासियों से की - लाख शब्दों में एक बात कहना - बंद करो , बंद करो !

Tuesday, April 27, 2010

आदतन तुम ने कर दिए वादे

आदतन तुम ने कर दिए वादे
आदतन हम ने ऐतबार किया

तेरी राहों में बारहा रुक कर
हम ने अपना ही इंतज़ार किया

अब ना मांगेंगे ज़िन्दगी या रब
यह गुनाह हम ने एक बार किया

- गुलज़ार साहेब


Saturday, April 24, 2010

आखिर हर्ज़ ही क्या है!


सोच रहा हूँ ज़िन्दगी से थोडा कुछ मांग लेने में हर्ज़ ही क्या है।

सर्दियों की थोड़ी नर्म सी धूप,
और साथ में अपने गाँव के पीपल की छांव,
कुछ मट्टी भी मांग लेता हूँ गंगा किनारे की,
बारिश में नहाये खेतों की भीनी खुशबू के साथ,
सुबह के पंछियों की चेह्चाहाट भी मिल जाये तोह क्या बात है.

वह सजे हुए मेले
और पुरानी टुक-टुक की सवारी,
जादू की टोपी से निकला हुआ खरगोश,
वह मदारी के डमरू
पे थिरकता बन्दर,
बुढिया के कुछ उलझे हुए बाल,
दिवाली पे फुस्स हुआ बम,
कुछ गुमी हुई अठान्नियाँ भी माग लेता हूँ ज़िन्दगी से
आखिर हर्ज़ ही क्या है।

कुछ सुलझे हुए से लोग,
वह एकलौती राशन की दुकान,
कुछ पुरानी राखियाँ,
घर की मुंडेर से दिखता बाज़ार,
क्रिकेट का मैदान,
घर की विशाल बैठक,
वह गुमसुम छुटकू दोस्त,

वाकई, थोडा समय भी मांग लेता हूँ
ज़िन्दगी से.

आखिर हर्ज़ ही क्या है!





Friday, April 23, 2010

कालेज के स्टुडेंट - काका हाथरसी

फादर ने बनवा दिये तीन कोट¸ छै पैंट¸

लल्लू मेरा बन गया कालिज स्टूडैंट।

कालिज स्टूडैंट¸ हुए होस्टल में भरती¸

दिन भर बिस्कुट चरें¸ शाम को खायें इमरती।

कहें काका कविराय¸ बुद्धि पर डाली चादर¸

मौज कर रहे पुत्र¸ हड्डियाँ घिसते फादर।

पढ़ना–लिखना व्यर्थ हैं¸ दिन भर खेलो खेल¸

होते रहु दो साल तक फस्र्ट इयर में फेल।

फस्र्ट इयर में फेल¸ जेब में कंघा डाला¸

साइकिल ले चल दिए¸ लगा कमरे का ताला।

कहें काका कविराय¸ गेटकीपर से लड़कर¸

मुफ़्त सिनेमा देख¸ कोच पर बैठ अकड़कर।

प्रोफ़ेसर या प्रिंसिपल बोलें जब प्रतिकूल¸

लाठी लेकर तोड़ दो मेज़ और स्टूल।

मेज़ और स्टूल¸ चलाओ ऐसी हाकी¸

शीशा और किवाड़ बचे नहिं एकउ बाकी।

कहें ‘काका कवि’ राय¸ भयंकर तुमको देता¸

बन सकते हो इसी तरह ‘बिगड़े दिल नेता।’

Wednesday, April 21, 2010

है हर ज़िन्दगी का बस यही तो तराना

हर पल में चलना और बस चलते रहना,
गिरना, संभालना और उठ खड़े होना,
लड़ना, नष्ट होना और लुप्त होकर फिर जन्म लेना,
थकना, थक के चूर होना और फिर शुरू हो जाना,
रो रो के हसना और हस्ते हस्ते रोना,
खोना, मिलना, और फिर गुमशुदा हो जाना,
डूबना, उभारना और फिर डूब जाना,
रूठे को मनाना और मना के रूठ जाना,
कभी कुछ कहना और कभी कुछ कह पाना,
ख्वाबों में जगना और जागते हुए सो जाना,
कुछ के साथ चलना और कुछ से बिछड़ जाना,
दीवानों की संगत में यूँ घुलना और मिलना,
यूँ अंजान राहों में फिर भटक जाना,
हो आये जहाँ से, है वहीँ पर तो जाना,
है हर ज़िन्दगी का बस यही तो तराना
है हर ज़िन्दगी का बस यही तो तराना।।
है हर ज़िन्दगी का बस यही तो तराना।।।

Monday, April 19, 2010

सरदार मुझे गोली मार दो!





सोचिये की शोले में अगर इस ससेने में कुछ ऐसा हुआ होता तोह क्या होता :-)

गब्बर : कितने आदमी थे?
साम्भा : सर्कार दो थे

गब्बर: मुझे गिनती नहीं आती, कितने होते हैं?
साम्भा: दो एक के बाद आता है

गब्बर: और दो के पहले क्या आता है?
साम्भा: दो के पहले एक आता है

गब्बर: तोह बीच में कौन आता है?
साम्भा: बीच में कोई नहीं आता

गब्बर: तोह फिर दोनों एक साथ क्यूँ नहीं आते?
साम्भा: दो एक के बाद आता है क्यूंकि दो एक से बड़ा है

गब्बर: दो एक से कितना बड़ा है?
साम्भा: दो एक से एक बड़ा है

गब्बर: अगर दो एक से एक बड़ा है तोह एक एक से कितना बड़ा है?

साम्भा( गुस्से में ) - सरदार आप मुझे गोली मार दो !

Monday, April 05, 2010

ऋषिकेश - एक झलक लाखों देवताओं की नगरी की

पेश है मेरी हाल की ऋषिकेश यात्रा से विशेष विडियो सिर्फ RGB और चिट्ठाजगत के दोस्तों के लिए। उम्मीद है आपको पसंद आएगे