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Monday, August 27, 2012

यादों का पिटारा और कटिंग चाय

 
 
यादों के पिटारे से
अभी अभी ताज़ी खबर आई है,
किसी पुराने दोस्त ने
उसी नुक्कड़ पर से
फिर आवाज़ लगाई है.
ध्यान से सुना
तो साथ में
शाम की चाय की चुस्की,
मुह में टूटते करारे समोसे,
बगल की गली से पुकारता
बिटटू चोकीदार,
सब्जी वाले से
मोल भाव करती
पड़ोस की औरतें,
घरघराता होर्न मारता
लाल पिला ऑटो,
नज़दीक की दुकान
से विडियो गेम की
आती आवाजें,
चक्की में पिस्ता गेंहूं,
किसी राहगीर के
ट्रांसिस्टर में भारत पाक
मैच की कमेंट्री,
हर हफ्ते आने वाले,
शनि महाराज की घंटी.
नुक्कड़ किनारे
खड़ी बिल्ली की मियाऊँ.
और इसी बीच पिटारे से 
फिर से आई वो आवाज़ 
 
भैय्या जी, बैठिये 
चाय पियेंगे?
 
 
 

Friday, August 24, 2012

तुम अब भी मेरे दोस्त हो

 
तेरे भी कुछ फ़साने हैं,
मेरे भी कुछ फ़साने हैं.
चुप रहने के लिए तो,
सेंकडो बहाने है.
दो बात मैं कहूं,
दो बात तुम कहो.
बेजुबान रहने से,
कहाँ बनते तराने हैं.
 
चलो इस ख़ामोशी को,
मैं ही तोड़ता हूँ.
उन यादों का वास्ता दे,
टूटे दिल फिर जोड़ता हूँ.
पर जवाब देना तो,
तुम्हारा भी बनता है.
दोस्ती में छप रहना
नहीं चलता है.
 
उस नुक्कड़ की चाय को
फिर बाँट लेते हैं,
साथ इमली के चूरन को
फिर चाट लेते हैं.
यूँ आटने-बाटने में
ही समय गुज़ार लेंगे
तुझे दोस्त कहकर
फिर पुकार लेंगे

Wednesday, August 22, 2012

प्रिय कवी तुम कहाँ हो?

कहते हैं ढूँढने से तो भगवान भी दिखते हैं पर आज के समय में हिंदी कवी या यूँ कहिये कवी भी एक दुर्लभ प्रजाति सी मालूम पड़ती है. आजकल के अख़बारों में छपे निबंध, गीत या कविताओं में वीर रस, भक्ति रस, श्रृंगार रस, वीभत्स रस, रौद्र, भयानक, अदभुत, कारुन्य, और हास्य रस की खोज में यदि निकला जाये तो भयानक या वीभत्स अतिरिक्त मात्र में मिलेगा इस बात की गारंटी है.

इसमें गलती लिखने वाले की भी नहीं है, अब हास्य व्यंग को ही ले लीजिये, लोगों ने टी वी पर प्रसारित प्रोग्राम जैसे की कामेडी सर्कस को ही हास्य व्यंग मान लिया है तो अब बेचारा कवी क्या करे. सोनी टीवी के सी आई डी  नामक कार्यक्रम में से अदभुत और भयानक तो नहीं पर हास्य अवश्य मिल जाएगा :)

इसे कहने में मुझे बिलकुल संकोच नहीं हो रहा है की यह स्थति खुद में काफी हास्यास्पद है। माफ़ी चाहता हूँ पर अंग्रेजी भाषा का बिगुल बजाने वालों को उस भाषा का उपयोग भी सही से नहीं आता. अंग्रेजी कवी की हालत तो हिंदी से भी गयी बीती है। हमारे अंग्रेजी कवी और लेखक तो शब्दों को नुक्कड़ पे बैठे बनिए की तरह टोल टोल के देते हैं। कभी कभी तो शब्दों की  इतनी कंजूसी करते हैं की कहना क्या चाहते हैं यह भी पता नहीं चलता.

वैसे देखा जाये तो समय के साथ शब्द भी सिकुड़ गए और कविता भी त्वीट बनकर रह गयी है तो फिर कवी तो सिर्फ फेसबुक पर ही दिखाई देंगे, असल दुनिया में नहीं. और मेरी मानिए तो इनकी खोज करना भी समय की बर्बादी है, जब आप में से कई सज्जन तो मन बना ही चुके हैं की हिंदी भाषा को उसकी कब्र तक छोड़ के ही आएंगे, तो फिर क्या फर्क पड़ता है। पर हाँ, ट्विट्टर के इन शब्दों की तरह, यह सिकुड़ा हुआ साहित्य भी आने वाली नस्लों के किसी काम का नहीं होगा इसमें कोई दो राय नहीं है। ऐसे में दिल यह पुकारने पे मजबूर ही तो होगा:

प्रिय कवी तुम कहाँ हो ?

Tuesday, August 21, 2012

खर्चासुर का कहर

कौन कहता है की असुरों, दैत्य और दानवों का समय जा चूका है? अजी किसी मध्य वर्ग के परिवार से पूछकर तो देखिये, सभी की जुबान पर एक ही असुर का आतंक मिलेगा. जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ  आज के समय का प्रलय रुपी खर्चासुर की , जिसके भय से मध्य वर्ग तो क्या, उच्च वर्ग के लोग भी कापना शुरू हो गए हैं.

खर्चासुर कैसा दिखता है, कहाँ से आता है, कुछ नहीं कह सकते और अब हमारी सरकार भी इस असुर से अपना पल्ला झाड चुकी है। खर्चासुर के बारे में पूछने से ही हमारे वित्त मंत्री भी बगुले झांकते फिरते हैं तो मुसीबत में मदद की उम्मीद कम ही मालूम पड़ती है।

अब एक आम इंसान खर्चासुर से लड़ने के लिए कर भी क्या सकता है, खासकर की जब उसने घर की सारी महिलाओं पे अपना वशीकरण मंत्र फूँक रखा हो। वैसे पिछले कई साल से मैं देख रहा हूँ, यह दानव महीने की एक तारीख को आता है और अपना कहर फैला के चला जाता है। फिर बाकी के बचे दिन किसी तरह इस दैत्य से बचने के रास्ते खोजने पड़ते हैं।

खर्चासुर की सेना सब जगह फैली हुई है, क्रेडिट कार्ड वाले तो इस चतुरंगिनी सेना के सबसे खतरनाक सैनिक हैं, उसके पीछे आपके पास के लोकल माल मालिक जो हर हफ्ते किसी न किसी तरह आपके बटुए में हाथ घुसाने में कामयाब हो जाते हैं, कभी नयी फिल्म के बहाने, कभी साडी सूट पर लगी सेल, कभी बच्चों के नए झूले और कुछ न मिले तो कमबख्त मेक डोनाल्ड का बर्गर जान खाने को आ जाता है।

गर्मी, बारिश या सर्दी, जो भी मौसम हो इस दैत्य की शक्ति तो बस बढती ही जा रही है। इस दैत्य का सबसे बड़े दोस्त बिजली के बिल और पेट्रोल हैं जिसने इसकी शक्ति को चार गुना बढ़ा दिया है। महीने दर महीने यह खर्चासुर के नाखून की धार और पेनी करते जा रहे हैं।

कभी कभी लगता है, हम जीवन में अपने लिए नहीं बल्कि खर्चासुर की तिजोरी भरने के लिए कमा रहे हैं। इस पर टैक्स, उस पर टैक्स, बात बात पर टैक्स, टैक्स पर टैक्स, आखिर इस दैत्य का अंत कहाँ है?

यह लेख लिखते हुए मुझे पीपली लाइव का वो लोक गीत याद आ रहा है, सखी सैय्यां तो खूब ही कामात हैं मेहेंगाई डायन खाए जात है।

  

Saturday, August 11, 2012

भारत रत्न करीना कपूर की जय हो

दोस्तों, जैसा की आप जानते ही हैं की आजकल हमारे देश में नारी मुक्ति मोर्चे ने हवा पकड़ ली है. इस विषय में मैंने अपने लेख आज घोड़ियाँ हड़ताल पे हैं में भी लिखा था. बात अब सिर्फ नारी के सम्मान तक ही नहीं सीमित है, बल्कि उन्हें मिलने वाले हक की है जिससे उन्हें आजादी के ६५ साल बाद भी वंचित रखा गया है. इसी बात से जुडी एक अति महत्त्वपूर्ण चीज़ मैंने हाल ही में देखि और जिसे देखने के बाद मुझसे रहा नहीं गया और इस लेख को लिखने का फैसला मैंने उसी पल कर लिया.

अब मैं आको कुछ ऐसे तथ्य बताने जा रहा हूँ जिसे सुनकर आपके कान अवश्य ही खड़े हो जाएंगे, हमारे देश सर्वोच्च पुरस्कार भारत रत्न, इसे हमारे विशाल और महान लोकतंत्र में चलने वाली ताना शाही ही कहेंगे की अब तक दिए गए 41 भारत रत्न में से सिर्फ ४ ही महिलाएं हैं. अगर यकीं नहीं आता तो यहाँ क्लिक करके खुद ही देख लीजिये, प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं. मतलब १२५ करोड़ की आबादी वाले देश में क्या सिर्फ ४ ही महिलाएं भारत रत्न के योग्य थी? अजी मैं यह पूछता हूँ की बाकी औरतें क्या कीकली खे रही थी. और इन चार में से एक दिवंगत भूतपूर्व प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी, प्रख्यात समाज सेविका मदर टेरेसा, सुर सम्राज्ञी लता मंगेशकर और एम् एस सुब्बलक्ष्मी हैं. यह सब कुछ विचित्र सा नहीं लगता आपको?

खैर, इस मुद्दे को कुछ और आगे बढ़ाते हैं, अब सवाल आता है की आज के सन्दर्भ में हम किस नारी को भारत रत्न देना पसंद करेंगे, वैसे इस बहस का कोई अंत नहीं है, मैं कुछ कहूँगा, कोई और कुछ भी कहेगा, और आप तो कुछ और ही कहोगे. इस कहने सुनने को छोडिये, कुछ देर के लिए अपनी सोच का कटोरा मुझे सौंप दीजिये और यह सुनिए.
अब कई नामों पे विचार करने के बाद जो एक नाम मेरे ह्रदय की गहराईयों में से उभरा है वह और कोई नहीं, आप सबकी और खास कर अपने सैफ खान की चहेती, प्यारी, कुमारी, देखने में लगती हैं बेचारी सी जो नारी, कपूर खानदान की दुलारी - बेबो उर्फ़ करीना कपूर. अर्र्रे आप तो उठ खड़े होकर जाने की तय्यारी में लग गए हैं. कम से कम यह तो जान लीजिये की करीना को ही भारत रत्न के लायक क्यूँ चुना मैंने?
सच बताऊँ तो दिल पर पठार रखना पड़ा. पर जब मैंने आंखें बंद कर बौद्ध चिंतन करते हुए सोचा तो मुझे और कोई नाम नहीं दिखाई दिया सिवा करीना कपूर के जिन्होंने अकेले ही भारत की महिलाओं को न सिर्फ जोड़ने का काम किया बल्कि इस देश की महान और प्राचीन विरासत को फिर से उभारने का मौका दिया. चलिए मैं जादा न बोलते हुए आपको मनोज कुमार की फिल्म पूरब और पश्चिम से एक झलकी दिखता हूँ, शायद आप मेरा इशारा समझ जाएं.  
 
 

जी हाँ इस गीत में मनोज कुमार ने जीरो यानी की शून्य का ज़िक्र किया है जिसकी खोज हमारे भारत देश में ही हुई थी. ज़रा सोचिये करीना के आने से पहले शायद ही भारत की महिलाओं में शून्य को लेकर इतना लगाव रहा हो. पर पिछले कुछ सालों से "साइज़ जीरो" कल्चर ने दुनिया भर में मानो एक क्रांति सी ला दी है. आज की नारी का जीवन शून्य यानी के साइज़ जीरो से इस कदर जुड़ चुका है की शायद गणित के द्रोणाचार्य आर्यभट ने भी शून्य खोजते समय इसकी कल्पना नहीं की होगी.

अब आप मुझे एक भारतीय नारी का नाम ऐसा बताइए जिसने भारत की सभ्यता और संस्कृति की इतनी बड़ी धरोहर को दुनिया भर की युवतियों से लेकर आंटियों तक न सिर्फ पहुँचाया बल्कि साइज़ जीरो से जुड़े लाखों व्यवसायों ( पार्लर, वी एल सी सी , काया जैसे ब्रांड ) को बढ़ने का मौका दिया जिससे हमारी आर्थिक उन्नति में भी योगदान हुआ.

मेरे ख्याल से करीना कपूर भारत रत्न की सबसे पहली दावेदार हैं. इससे बड़ी उपलब्धि न ही है और न ही हो सकती है. अगर इस लेख को पढ़कर आपको भी लगता है की करीना कपूर को भारत रत्न मिलना चाहिए तो नीचे कमेन्ट में मुझे ज़रूर लिखियेगा और अपने सुझाव भी दीजिएगा. :)

Friday, August 10, 2012

नन्द के आनंद भयो जय कन्हैया लाल की




हे आनंद उमंग भयो जय हो नन्द लाल की
नन्द के आनंद भयो
जय कन्हैया लाल की


हे ब्रज में आनंद भयो
जय यशोदा लाल की
नन्द के आनंद भयो
जय कन्हैया लाल की

हे आनंद उमंग भयो
जय हो नन्द लाल की
गोकुल में आनंद भयो
जय कन्हैया लाल की

जय यशोदा लाल की
जय हो नन्द लाल की
हाथी, घोड़ा, पालकी
जय कन्हैया लाल की

जय हो नन्द लाल की
जय यशोदा लाल की
हाथी, घोड़ा, पालकी
जय कन्हैया लाल की

हे आनंद उमंग भयो
जय कन्हैया लाल की

हे कोटि ब्रह्माण्ड के
अधिपति लाल की
हाथी, घोड़ा, पालकी
जय कन्हैया लाल की

हे गौऐं चराने आये
जय हो पशुपाल की
नन्द के आनंद भयो
जय कन्हैया लाल की

आनंद से बोलो सब
जय हो ब्रज लाल की
हाथी, घोड़ा, पालकी
जय कन्हैया लाल की

जय हो ब्रज लाल की
पावन प्रतिपाल की
हे नन्द के आनंद भयो
जय हो नन्द लाल की

Wednesday, August 08, 2012

नथिंग गुड अबाउट (गुड)गाव

आज, मैं अपने होश-ओ-हवाज़ और बिना किसी के दबाव में आये, आत्म समर्पण करना चाहता हूँ और वह भी इस क्रूर गुडगाँव शहर के आगे. इस बात से मैं नाखुश हूँ पर मैं और कर भी क्या सकता हूँ. जीवन में कई बातें हमें न चाहते हुए भी अपनानी पड़ती हैं, गुडगाँव शहर में काम करना भी कुछ वैसा ही है. पर बात यहीं ख़त्म नहीं होती, सवाल और भी कई हैं जिनका उठाया जाना आवश्यक है.
 
क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को गुडगाँव या नॉएडा जैसे शहर विरासत में छोड़ के जाना चाहते हैं? जहाँ कंकर पत्थर और कांच की बड़ी बड़ी इमारतें तो हैं पर उनमें बसने वाले लोगों के दिल उन्ही इमारतों की तरह कठोर हो चुके हैं. यहाँ आने वाला हर इंसान रोज़ सुबह उठने से डरने लगा है, इन शहरों का खौफ इस कदर हमारे दिलों पे हावी है की हम खुल के जीना ही भूल गए हैं. हसी ख़ुशी के पल तो अब पैसे देकर खरीदने पड़ते हैं. वह दिन दूर नहीं जब ज़िन्दगी की हर ख़ुशी पर भी टोल लग जाएगा
 
मैं आप सब की तरह अपने परिवार को ढेर सारी खुशियाँ देना चाहता हूँ, जिसके लिए रोज़ दस से बारह घंटे मैं जम के काम करता हूँ और इन्क्रीमेंट या तरक्की मिलने पर दोस्तों में ख़ुशी को बाटने की पूरी कोशिश करता हूँ. पर इस बीच में जीवन के ४ घंटे कोई चुरा के ले जाता है. यह वह चार घंटे हैं जिनपर सिर्फ मेरे परिवार का हक़ था. आज स्थिति यह है की मुझे परिवार के लिए समय निकलने के बारे में सोचना पड़ता है.
 
वे कहते हैं की कुछ लोगों को गिलास आधा खाली ही दिखता है, पर मैं सवाल आधे भरे हुए गिलास पर उठा रहा हूँ. कब तक हम इस बात को सोचकर खुश होते रहे की आधा गिलास भरा है चाहे उसमें ज़हर ही क्यूँ न हो. शायद इस शहर में रहने वालों को सिकोड़ के रहने आदत हो गयी है. सड़क नहीं, पानी नहीं, बिजली नहीं, हवा नहीं, अब तो जंगल के जानवरों से जलन हो रही है. कम से कम ताज़ी हवा तो ले रहे हैं. खैर हमारा शहर भी जंगल से कुछ कम नहीं. फिर चाहे वह जंगल कंक्रीट का ही क्यूँ न हो. कमबख्तों ने बढती आबादी के नाम पे सारे पेड़ काट डाले. कभी गुडगाँव को उड़ते विमान की खिड़की से देखना, शहर और शहर बनाने वाले दोनों से नफरत हो जाएगी. शायद बियाबान रेगिस्तान इस शहर से जादा खूबसूरत होगा.
  • हम यह सब क्यूँ बर्दाश्त कर रहे हैं?
  • क्या कोई उपाय है?
  • क्या इसे अपना दुर्भाग्य मान के यूँ ही चलने दें? क्या आप थक नहीं गए?
  • क्या आपको इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की कोई आपके जीवन से अनमोल पल चुरा के ले जा रहा है?
  • इसे किसकी ज़िम्मेदारी समझें? अगर सरकार की तो ऐसी सरकार को लाने की ज़िम्मेदारी किसकी है?
 
मेरा मानना यह है की कोई भी शहर इमारतों या सड़कों से कहीं जादा वहां के लोगों से बनता है. एक शहर को बनाना और उसकी देखभाल करना हमारी ही जिम्मेदरी है. अगर सरकार कुछ ठीक नहीं कर सकती तो उसे हटा कर हमें खुद ही ठीक करना पड़ेगा. आखिर यह हमारा घर है. अगर घर की साफ़ सफाई करने वाला नौकर अगर काम न करे या गलत करे तो आप क्या करते हैं? उसे बदल देते हैं, पर इससे घर की सफाई तो नहीं रूकती.
लगता है आपके और मेरे चैन के साथ गुडगाव से गुड जैसी मिठास भी चुरा ली गयी है.
जागो दोस्तों!