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Wednesday, August 22, 2012

प्रिय कवी तुम कहाँ हो?

कहते हैं ढूँढने से तो भगवान भी दिखते हैं पर आज के समय में हिंदी कवी या यूँ कहिये कवी भी एक दुर्लभ प्रजाति सी मालूम पड़ती है. आजकल के अख़बारों में छपे निबंध, गीत या कविताओं में वीर रस, भक्ति रस, श्रृंगार रस, वीभत्स रस, रौद्र, भयानक, अदभुत, कारुन्य, और हास्य रस की खोज में यदि निकला जाये तो भयानक या वीभत्स अतिरिक्त मात्र में मिलेगा इस बात की गारंटी है.

इसमें गलती लिखने वाले की भी नहीं है, अब हास्य व्यंग को ही ले लीजिये, लोगों ने टी वी पर प्रसारित प्रोग्राम जैसे की कामेडी सर्कस को ही हास्य व्यंग मान लिया है तो अब बेचारा कवी क्या करे. सोनी टीवी के सी आई डी  नामक कार्यक्रम में से अदभुत और भयानक तो नहीं पर हास्य अवश्य मिल जाएगा :)

इसे कहने में मुझे बिलकुल संकोच नहीं हो रहा है की यह स्थति खुद में काफी हास्यास्पद है। माफ़ी चाहता हूँ पर अंग्रेजी भाषा का बिगुल बजाने वालों को उस भाषा का उपयोग भी सही से नहीं आता. अंग्रेजी कवी की हालत तो हिंदी से भी गयी बीती है। हमारे अंग्रेजी कवी और लेखक तो शब्दों को नुक्कड़ पे बैठे बनिए की तरह टोल टोल के देते हैं। कभी कभी तो शब्दों की  इतनी कंजूसी करते हैं की कहना क्या चाहते हैं यह भी पता नहीं चलता.

वैसे देखा जाये तो समय के साथ शब्द भी सिकुड़ गए और कविता भी त्वीट बनकर रह गयी है तो फिर कवी तो सिर्फ फेसबुक पर ही दिखाई देंगे, असल दुनिया में नहीं. और मेरी मानिए तो इनकी खोज करना भी समय की बर्बादी है, जब आप में से कई सज्जन तो मन बना ही चुके हैं की हिंदी भाषा को उसकी कब्र तक छोड़ के ही आएंगे, तो फिर क्या फर्क पड़ता है। पर हाँ, ट्विट्टर के इन शब्दों की तरह, यह सिकुड़ा हुआ साहित्य भी आने वाली नस्लों के किसी काम का नहीं होगा इसमें कोई दो राय नहीं है। ऐसे में दिल यह पुकारने पे मजबूर ही तो होगा:

प्रिय कवी तुम कहाँ हो ?

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